असग़र वजाहत की कहानियों में मनोवैज्ञानिकता
हिंदी कथा साहित्य के सरताज़ प्रेमचंद ने कहा है “ सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो।‘’ 1 प्रत्येक रचनाकार अपने मानसिक अभावों की पूर्ति कला-जगत के संसार में करता है। वह अपने व्यक्तित्व की अपूर्णता या लघुता को किसी पात्र-विशेष में पूर्णता या असीमित भाव में देखना चाहता है। वह अपने आंतरिक तथा बाह्य परिवेश को अपनी रचनाओं में स्थान देता है। रचना चाहे यथार्थपरक हो या काल्पनिक उसमें वर्णित पात्र भावुक, संवेदनशील, आक्रामक, स्थितप्रज्ञ आदि विभिन्न ढाँचों में ढले होते हैं। साहित्य मूलत: किसी वाद से प्रभावित नहीं होता, साहित्यकार भले ही होता हो। साहित्य अपनी युगीन स्थितियों की उपज होता है, जो विषयवस्तु बनकर साहित्य में आती है। आवश्कतानुसार वादों-प्रतिवादों या संवादों के परिप्रेक्ष्य में हम उसका मुल्यांकन करते हैं। कथाकार राजेंद्र यादव के शब्दों मे “ कला-सर्जना कलाकार की मानस-प्रक्रिया में ढलकर रूप लेती है। वह इस संसार के समानांतर स्वतंत्र सृष्टि ही तो है, स्वतंत्र सृष्टि अर्थात् निर्माण और संघटन के अपने नियमों, परम्पराओं से प्रेरित- परिचालित . . . . . कलाकार इसके लिए दृष्टि भले ही इस वस्तु संसार से लेता हो, रूप उसका वह अपने ही स्वप्नों, स्मृतियों, आवश्यकताओं, दबावों, कुण्ठाओं और दृष्टियों के अनुरूप लेता है।2
युंग ने तो मानव के अवचेतन संभाग को सृजनशीलता की कृति कहा है, जिसके माध्यम से समूची मानव जाति के श्री , सौंदर्य एवं समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हुआ है। यही कारण है कि युंग ने इस सृजनात्मक शक्ति के मूलाधार अवचेतन संभाग को वैयक्तिक चेतना की अपेक्षा अधिक प्रभावकारी एवं महत्वपूर्ण माना है। 3
लब्धप्रतिष्ठित कथाकार असग़र वजाहत की कहानियों का मनोविश्लेषणात्मक विवेचन और अनुशीलन करते हुए इस आलेख हम उनकी कुछ प्रमुख कहानियों यथा – ‘ मैं हिंदू हूँ ’ , ‘ केक ’, ‘ उनका डर ’, ‘ डंडा ’ , ‘ मछलियाँ ’ आदि के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर हम विचार करेंगे ।
‘ मैं हिंदू हूँ ’ कहानी बाहरी रूप में तो साम्प्रादयिकता पर आधारित लगती है लेकिन सूक्ष्म अवगाहन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इस कहानी का मूल में अपने साथियों द्वारा सैफू नामक पात्र के मन में दंगे के दुष्परिणाम का भयावह चित्र खिचे जाने के कारण उत्पन्न भय है। इस कहानी का प्रमुख पात्र साम्प्रदायिकता के खौफनाक माहौल से भयाक्रांत हो धर्मांतरण की लालसा प्रकट करने वाला सैफू है जो कि एकतरफा अनाथ भी है। मोहल्लें के शरारती बच्चें सीधे-सादे सैफू को हमेशा छेड़ते हैं। रात में गस्त के दौरान डरावने एवं हिंसक किस्से सुनाते हैं। उसके मन में यह विश्वास उँड़ेल देते हैं कि हिंदू अत्याचारी होते हैं। ऐसे में उसके मन में यह धारणा रूढ़मूल हो जाती है कि मुसलमान बनना अपराध है। हिन्दू देश में उसकी जान सर्वदा खतरे में है। उसके मनो-मस्तिष्क में हिंदू का डर प्रवेश कर जाता है और उसे लगता है कि हिंदू बन जाने पर उसे डरने की आवश्यकता नहीं होगी, फिर उसे पी. एस. सी. जवान नहीं मारेंगे । गस्त के समय साथ के लड़कों द्वारा जो डर उसके भीतर पैदा हुआ है वह उसे स्वप्न में भी डराता है । वह एक दिन अचानक सोते में चीखने लगता है। बड़ी मासूमियत और भोलेपन से वाचक से पूछता है “ बड़े भाई ! मैं हिंदू हो जाँऊ? ‘’
जब पी. एस. सी. के जवान नुक्कड़ पर उसे मारते हैं यही मन की ग्रंथि उसे यह कहने के किए प्रेरित करती है कि “ मुझे तुम लोगों ने क्यों मारा- - - - मैं हिंदू हूँ -- - हिंदू हूँ - - - ।
यह भाव सैफू के अचेतन मन में पल रहा है जो अग्रचेतन में पल्लवित होकर चेतनता को प्राप्त करता है और वह कह उठता है “ मुझे तुम लोगों ने क्यों मारा - - - - मैं हिंदू हूँ - - - हिंदू हूँ - - - - ।‘’
इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का सम्यक अन्वेषण भारतीय समाज विशेषकर आज के सामाजिक संदर्भ में अति आवश्यक प्रतीत होता है जब धर्म के नाम पर घिनौने खेल खेले जा रहे हैं। मांस के होने के शक , पशु विशेष के नाम पर, मंदिर-मस्जिद के नाम पर ,लव जेहाद - - - जैसे मुद्दों को उठाकर आमजन को भ्रमित किया जा रहा है। उनका राजनीतिक उपयोग किया जा रहा है। भारतीय प्राचीन साहचर्ययुक्त-सहजीवन की अनुपम परम्परा को खण्डित-विच्छेदित किया जा रहा है। इन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों में यह कहानी और अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
कथा साहित्य में मानवीय संवेदना ही वह तत्व है उसे पुरानी होने से बचाता है। अपने समय के यथार्थ के अधिक निकट होनेवाली कहानी जल्दी पुरानी पड़ जाती है क्योंकि ‘कालिक यथार्थ ’ स्थायी नहीं होता। साहित्य में बाह्य या स्थूल यथार्थ का चित्रण अपनी अर्थवत्ता ज्यादा समय तक नहीं रख पाता है। साहित्य या कला जगत् का यथार्थ इकहरा या सपाट या एक स्तरीय नहीं होता। रचनाकार अपनी दृष्टि से यथार्थ में अर्थ की खोज करता है अर्थात् वस्तुगत यथार्थ विषयीगत यथार्थ बन जाता है। इस प्रकार जब बाह्य या स्थूल यथार्थ सूक्ष्म मानवीय संवेदना का स्वरूप ग्रहण करता है तो मानवीय यथार्थ बन जाता है और अर्थवत्ता को वृहत्तर आयाम प्रदान करता है।
सन् 1971 में लिखी गई बहुचर्चित-प्रसंशित कहानी ‘ केक ’ जिसमें डेविड नामक पात्र अपनी यादों की दुनिया से उबड़ नहीं पाता है। महानगर दिल्ली में आकर प्रूफ़रीडिंग का काम करता है। डेविड का अभावग्रस्त जीवन , समाज में भ्रष्टतंत्र के बल पर वैभवशाली जीवन जी रहे लोगों के प्रति घृणा, शहरी पारिवारिक जीवन का विकृत स्वरूप, मानवीय सरोकारों से अलग हो पल-बढ- रहा सामाजिक ढाँचा, जीवन का वह पक्ष प्रस्तुत करता है जिसे अपने इर्द-गिर्द खासकर महानगरीय और शहरी जीवन में हम देखते तो है लेकिन इस भयावह मानवीय संत्रास को समझ नहीं पाते है। कहानी में डेविड के जीवन से जुड़ा बाह्य यथार्थ कहानीकार की अर्थान्वेषी दृष्टि से सूक्ष्म संवेदनात्मक स्वरूप ग्रहण कर मानवीय यथार्थ बन जाता है जिससे कहानी वृहत्तर आयाम को प्राप्त करती है।
‘ केक ’ कहानी का आरंभ में ही भ्रष्ट समाज के प्रति डेवीड का आक्रोश प्रकट होता है – उन्होंने मेज पर एक जोरदार घूँसा मारा और मेज बहुत देर तक हिलती रही। मैं कहता हूँ जब तक एट ए टाइम पाँचसौ लोगों को गोली से उड़ा नही दिया जायेगा, हालात ठीक नहीं हो सकते।‘’ अपनी खासी स्पीकिंग पावर नष्ट करके वह हाँफने लगा। 4
महानगरीय जीवन किस प्रकार गाँव या कस्बें से आए आदमी को लील रहा है -- - वह महानगर रूपी मगरमच्छ के मुँह में फँसकर छटपटाता रहता है , मुक्त नहीं हो पाता। इस त्रासदी का बड़ा ही वीभत्स लेकिन मार्मिक चित्र उपस्थित है जब कथा नायक डेविड वाचक को कहता है “ भाग जाओ इस इस शहर से जितनी जल्दी हो सके भाग जाओ। मैं भी तुम्हारी तरह कॉलेज से निकलकर सीधा इस शहर में आ गया था राजधानी जीतने। लेकिन देख रहे हो, कुछ नहीं है इस शहर में, कुछ नहीं। मेरी छोड़ दो। मैं कहाँ जाऊँ ! गांड के रास्ते यह शहर मेरे अंदर घुस चुका है। ‘’ 5
‘ उनका डर ’ अमेरिकी प्रवास के दौरान कहानीकार द्वारा लिखि गई कहानी है जिसका आधार है “ दुर्भीति प्रतिक्रिया ( Phobic Reaction ). दुर्भीति प्रतिक्रिया किसी ऐसी वस्तु अथवा परिस्थिति का सतत् भय है जो वस्तुत: किसी भय का कारण नहीं हो सकती। व्यक्ति इसकी वास्तविकता को बिना किसी अनुपात के बढ़ा-चढ़ाकर अकारण ही भयभीत होता है। इस कहानी में वाचक के अतिरिक्त और चार पात्र हैं , चारों हिंदुस्तानी है, हैदराबाद से हैं - वाचक के मित्र अंजुम के भाई मसरूर साहब, जो कि अमेरिका के किसी यूनिवर्सिटी से केमेस्ट्री में पी. एच. डी. हैं , काली शेरवानी अलीगढ़कट पाजामा पहनने और जमाअते-इस्लामी वालों की तरह दाढ़ी रखने वाले इंजीनियरिंग की बड़ी डिग्री प्राप्त असद साहब, वेन यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर डॉ. ताहिर साहब तथा वाचक को पहली नजर में बेवकूफ से लगने वाले अहमद साहब। चारों साहिबान इस्लाम और इस्लामी तालिम के प्रति चिंतित दिखाई देते हैं। अमेरिका और भारत दोनों ही जगह इस्लाम और अपने मुस्लिम भाइयों के हर संभव प्रगति के लिए प्रयासरत हैं लेकिन उनके अंदर एक डर समाया हुआ है कि उनकी संतानें खासकर लड़कियाँ अमेरिकी कल्चर के कारण अमेरिका में सुरक्षित नहीं रह सकती। युवा होती लड़कियाँ उनके डर का कारण हैं। उनका कौमार्य और शील अमेरिकी कल्चर से प्रभावित होगा और वे अमेरिकी लड़कों के प्रेमपाश में पड़कर संभोगरत हो जायेंगी। मानव मनोविज्ञान के दुर्भीति प्रतिक्रिया ( Phobic Reaction ) पर आधारित इस कहानी में कहानीकार ने बड़े ही खूबसुरत ढ़ंग से मनुष्य के अंदर के डर को विश्लेषित किया है।
‘ डंडा ’ एक लघुकथा है। इसमें प्रतीकों के माध्यम से कथाकार ने मानवीय मनोवृत्तियों का बड़ा ही सूक्ष्म और सटिक अंकन किया है। हमलोग किस प्रकार प्रतिक्रिया विहीन हो जाते हैं और सत्ता के भ्रष्टतंत्र का हिस्सा बन जाते है। प्रतिरोध किस प्रकार धीरे-धीरे खत्म हो जाता है और हमारी मनोवृति तंत्र के ताने-बाने से संयोजित हो जाती है, बड़ी ही खूबसुरती से इस कहानी में व्यक्त हुआ है।
‘मछलियाँ ’ कहानी के शुरुआत में ही कहानीकार कथानायक का मनोविश्लेषण करते हुए लिखते हैं “ वे ( अभय सिंह ) एक ही समय में एक ही आदमी से बात करते हुए अपने तेवर बदलने में माहिर हैं। जैसे इसी वक्त अपने घर ठहरे हुए क्षेत्र के एम.पी से पहले खुशामदी अंदाज में बात कहीं कि पार्टी में ए. पी. महोदय की स्थिति इतनी मजबूत है कि वे किसी भी समय मंत्री बनाये जा सकते हैं। उनकी बात सुनकर एम. पी. खुश हुए। इसलिए नहीं कि वे मंत्री बनाये जा सकते हैं, बल्कि इसलिए कि उनके चुनाव क्षेत्र में लोगों को यह नहीं मालूम है कि पार्टी में उनकी स्थिति कितनी खराब हो गयी है। फिर अभय सिंह ने तेवर बदले, माथे पर लकीरें पड़ी , चिंता जगी, आँखें लाल हुई, क्रोध आया; फिर उन्होंने ज़रा कड़ी आवाजम में एम. पी. से कहा कि चुनाव क्षेत्र की हालत खराब है और अगले चुनाव में वोट लेना टेढ़ी खीर होगा, क्योंकि क्षेत्र के अधिकारी अपने निजी स्वार्थों के लिए लड़ रहे हैं और जनता की उपेक्षा हो रही है। एम. पी. यह जानकर चिंतित हो गये। ‘’ 6
कहानी में कथानायक अभय सिंह का चरित्र एक ऐसे व्यक्ति के रूप में उभर कर आता है जो एक तरफ जनता के मिज़ाज को अच्छी तरह समझता है तो दूसरी तरफ राजनीतिक गलियारों और सत्तासीन अधिकारियों के नब्ज़ को भी पहचानता है। अभय सिंह एम. पी. साहब को कमिश्नर का दौरा कराने के लिए कहता है।वह कमिश्नर को लगोटिया यार बताता है और कमिश्नर के नाम पर अपने निहित स्वार्थों को बड़ी चतुराई से सिद्ध करता है। कहानी में उस क्षेत्र के सभी अधिकारी ( डी. एम. , इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स , एस. पी. , अधिशासी अभियंता आदि ) उसके हर इच्छा को पूरा करने में तत्पर दिखाईदेते हैं। अभय सिंह के रूप में हमारे समाज में फल-फूल रहे दलाल-तंत्र का जीवंत रूप उभर कर आता है।
स्वातंत्रोत्तर हिंदी कहानी साहित्य को जिन रचनाकारों ने अपनी सार्थक रचनाशीलता के माध्यम से कथा साहित्य को एक व्यापक फलक प्रदान किया, उनमें असग़र वजाहत का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने विभाजन की त्रासदी के साथ ही टूटते मानवीय मूल्यों, कला और संस्कृति के क्षेत्र में बढते राजनीतिक हस्तक्षेप, निम्न और मध्यम वर्ग की आर्थिक और सामाजिक विषमता को पूरी जीवंतता के साथ अपनी कहानियों में उकेरा है। उनकी कहानियों में भारतीय जन-जीवन पूरे परिवेश के साथ भिन्न-भिन्न रूपों में उभरकर सामने आया है। इनकी कहानियों की सार्थकता का राज है उनका सीधे जनता से खासकर आम जनजीवन से जुड़े रहना। वे अपनी कहनियों में चरित्र गठन करते समय उसके मनोवैज्ञानिक पक्ष का गहन अन्वेषण और अनुशीलन करते हैं। यही कारण है कि वे अपने कहानियों में चरित्र के विकास के लिए प्रयास नहीं करते बल्कि उन पात्रों के चरित्र का विकास अपने –आप हो जाता है।
असग़र वजाहत जैसे सिद्धहस्त मानव मन पारखी कहानीकार का सम्यक मूल्यांकन करते हुए श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखा है “ असग़र वजाहत में प्रेमचंद और मंटो का सुखद मिश्रण है। यदि वह प्रेमचंद की तरह अपनी धरती से और अधिक गहराई से जुड़ सके, मंटो की तरह सामाजिक चीर-फाड़ में एक सर्जन की तरह एक स्तर पर निर्मम और दूसरे स्तर पर मानवीय करुणा से ओत-प्रोत भाषा की कैची संभाल सके तो हिंदी कहानी को बहुमूल्य योग दे सकेंगे। ‘’ 7
संदर्भ :
1. कुछ विचार – प्रेमचंद ,सरस्वती प्रेस , बनारस , पृ. 30
2. एक दुनिया समानांतर – राजेंद्र यादव , प्र. 17
3. कार्ल गुस्ताव युंग : विश्लेषनात्मक मनोविज्ञान- भवानी शंकर उपाध्याय , पृ. 259
4. आधी बानी – असग़र वजाहत, प्रवीण प्रकाशन , नई दिल्ली , प्रथम संस्करण ‘ केक ’ कहानी, पृ.1
5. वहीं , पृ. 10
6. वहीं, ‘मछलियाँ ’ कहानी, पृ. 87
7. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना – सम्पूर्ण गद्य रचनाएँ ( खंड -3) किताबघर प्रकशन, नई दिल्ली , पृ. 120
-आदित्य अभिनव
उर्फ डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेसर , हिंदी विभाग
भवंस मेहता महाविद्यालय, भरवारी
कौशाम्बी, यू. पी. – 212201
मोबैल -7972465770, 7767031429
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